अतिथि

इस तपती धूप में
नंगे पैरों रंगते रेंगते
इतनी दूर तक आ चुके हैं
की अब यह भी भूल चुके हैं
कि जूते कहाँ उतारे थे

हॉस्टल की वो यारी
यारी क्या रिश्तेदारी ही समझो
अब मानो एक धुंधली याद सी
लुक्का चुप्पी खेलती हुयी
ज़ेहन के किसी कोने में

वो रिश्ते जो बनाए थे कॉलेज में
वो पल जो बीते थे यारों कि यारी में
न जाने कहाँ टूट कर बिखर गए
केश से फिसले मुरझाए मोगरों की तरह

इन्ही नंगे पैरों पे चलते चलते
जब दरवाज़ा खटखटाया था
तो बस यही बात मस्तिष्क में थी
कि यह तो महज़ एक पड़ाव है
चंद लम्हों के लिए साँस लेना है
और हर राहगीर के नक़्शे कदम
अपनी मंज़िल की ओर आगे बढ़ना है

पर किसी ने ये नहीं बताया था
की दरवाज़े के पीछे जो ज़िन्दगी है
उसमें हॉस्टल वाले यार तो नहीं है
पर वो यारी ज़रूर बरक़रार है

इन बीते हुए सालों के सफर में
खुशियाँ ही खुशियाँ समेटी हैं मैंने
अब तो यह फ़र्क़ करना मुश्किल है
कि अपना कौन है और पराया कौन

पराए कब अपने हुए आभास तक न हुआ
अतिथि से family के सफ़र का एहसास भी न हुआ
पता नहीं जूते कहाँ उतारे थे
पर लगता है अब उनकी ज़रुरत नहीं है

PS: The lyrics of the poem is inspired by the movie Udaan.