लिबास

हल्के से पैरों को मोड़कर
अपने को ताकता हूँ आईने में
नयी पोशाक बदन को यूँ लपेटती हुई
मानो जिस्म से कोई ज़ाती राब्ता हो

अनोखी कारीगरी है इन बुनकरों की
धागों से मानो जादू पिरो देते हैं
अपने में ढक लेती जिस्म की सारी खामियाँ
इक नई पहचान दिलाती ये खुशरंग लिबास

कुछ अरमान हैं जो अधूरे से रह गए
मन आयतों सी याद दिलाता इन्हे मुसलसल
यक़ीनन ये अरमान अधूरे ही रहेंगी
जज़ीरा बनकर मन के किसी कोने में
काश ढक लेता इन्हे भी मेरा लिबास

कुछ अपने हैं जिनकी तरक़्क़ी से
मन जलता है
नाचीज़ को बरवक़्त मौके नसीब हुए साहेब
दर अस्ल पहचान नहीं पाए
कि मौके ऐसे भी आते हैं
काश इन एकसासों को ढक पाता मेरा लिबास

काश कोई ऐसा बुनकर होता
जो सी देता इस मन का लिबास
जो ढक ले अपने में पूरे मन को
जो समेट ले इस मन के सारे एहसास